हमारे अंतर्मन में एक सवाल हमेशा रहता है आखिर ये अलौकिक प्रेम क्या है ? लौकिक और अलौकिक प्रेम में क्या अंतर है? हम जिन अपनों से इतना मोह रखते हैं और ता उम्र जिनके प्यार में सब कुछ करते हैं , तन-मन-धन से जिन परिवार जनों , दोस्तों या बच्चों की खुशियों के लिए दिन-रात एक कर देंते हैं , अपना सब कुछ नियोंछावर करते हैं। क्या वही सच्चा प्रेम है?
प्रभुपाद जी की दिव्य वाणी सुनकर ज्ञात हुआ कि नहीं हम गलत है। इस लौकिक जगत में प्यार की हमारी परिभाषा ही सिर्फ स्वार्थ पर आधारित है इसलिए हम इसके अर्थ को ग़लत समझते हैं। आप सब जानते हैं कि Love & Lust दोनों में बहुत अंतर है और अगर हकीकत में देखा जाएं तो हम Lust को ही Love समझते हैं।
कोई भी इच्छा या चाहत जो सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारी अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करती है और सिर्फ़ हमें, हमारे दिल और हमारे दिमाग को खुशी देती है वो सिर्फ Lust है, love नहीं।
In prabhuji words " Any desire to satisfy ourself in a selfish manner is a Lust or you can say any desire to satisfy our own senses to give pleasure to our mind, our heart and our own self in a egoistic or selfish manner is kama or Lust" .
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A strong Desire to selflessly love shri krishna is a real Love in all aspects in this materialistic world
श्री राधा रानी का जो प्रेम श्री कृष्ण के लिए है वही सच्चा प्रेम है। राधा रानी के विषय में शास्त्रों में लिखा है -
" मम एव पोरुषम् रूपम्॒ गोपिका मनमोहनम्॒"
ये गोपियों को मनमोहने वाले मदनमोहन मेरे ही पुरूष रूप हैं। वो और मैं एक ही हैं।
ऋग्वेद कहते हैं- " एकम्॒ ज्योति अद्विधा , राधा-माधव रूपकम्॒"
एक ही ज्योति का अगर दो भाग में विभाजन हो जाए, एक पुरुष और एक परा प्रकृति वो ही राधा माधव हैं।
राधा रानी का श्री कृष्ण के लिए प्रेम इतना अगाध है कि वो कृष्ण को अपना ही हिस्सा मानती है । राधा रानी कहतीं हैं ये कृष्ण और कोई नहीं है मेरा ही पुरूष रुप है। ये कृष्ण और मैं एक ही हैं हम दोनों एक ही ज्योति के दो अलग-अलग रुप है- राधाकृष्ण
श्री कृष्ण जगदीश्वर हैं तो राधा रानी आदिशक्ति जगजननी । बिन शक्ति जगदीश्वर कुछ नहीं। श्रीकांत, त्रिभुवन पति ,लोक-लोकेश्वर श्री हरि स्वयं राजराजेश्वरी राधा रानी के चरणों की सेवा करते है।
राधा रानी का स्थान पुराणों में श्रीकृष्ण से उत्कृष्ट है। राधा रानी के चरण कमलो की महिमा का गुणगान करते हुए व्यास जी लिखते हैं कि राधा रानी की चरण रज पाने के लिए त्रिभुवन पति उनके कदमों में गिरते हैं ,लोटपोट होते हैं।यही है दिव्य अलौकिक प्रेम जिसमें कोई निज स्वार्थ नहीं है।
हम सब किसी से मिलते हैं, एक रिश्ते में आते हैं ,प्यार करते हैं या यूं कहें मोह करते हैं और सिर्फ़ तब तक इस रिश्ते में दिल से रहते हैं जब तक उस रिश्ते से हमारी इच्छाओं की पूर्ति होती है और उसके बाद तुम अपने रास्ते हम अपने रास्ते और हम अपने लिए कोई और साथी ढूंढ लेते हैं जो हमारी सब ख्वाहिशों को पूरा करने में सक्षम होता है बिना एक पल भी सोचें कि इससे किसी की भावनाओं कितनी आहत होगीं।
हम सब अपने आस-पास यही देखते हैं too many breakups , divorce, fights, murder only just bcause of this only thinking which have a deep and strong roots in our mind.
अब क्योंकि हम किसी से ये नहीं बोल सकते कि हमें तुमसे मोह है या आसक्ति है ,तो हम इस छल या स्वार्थ पूर्ण इच्छाओं को प्यार का चोला पहना देते हैं और बड़ी ही चतुराई से बोलते हैं हमें तुमसे प्यार है ।
We can't say I Lust you so we say I Love you
प्रभु जी कहते हैं इस लौकिक जगत मेंं अगर कोई भी ऐसा रिश्ता है जो अलौकिक जगत की जो प्रेम की परिभाषा है उसके नजदीक है तो वह है एक मां का अपने नवजात शिशु के लिए निस्वार्थ ममतामय, सेवामय प्रेम।
कोई इंसान तो क्या अगर स्वंयम भगवान भी एक मां को आकर बोले कि तुम्हारा ये नवजात बच्चा बड़े होकर डाकू या गुंडा बनेगा , तुम्हें बहुत दुख देगा तो मां यही बोलेगी कि जब बड़ा होगा तब देखेंगे अभी तो ये मेरा प्यारा बच्चा है, जाओ अभी मुझे इसके साथ खेलने दो।
एक मां ही है जो निस्वार्थ भाव से अपने बच्चों को प्यार करती है। खुद रात भर गीले में सोती है ,पर अपने बच्चे को सुखे पर सुलाती है । मल-मूत्र सब साफ़ करती है, बच्चे की लाते भी खाती है। अपने आराम या सुख सुविधाओं के लिए एक पल भी नहीं सोचती बस जैसे मां के लिए उसका बच्चा ही उसकी जिंदगी है।
बच्चे चाहे कैसे भी हो मां उन्हें सच्चे दिल से प्यार करती है और हर पल अपने बच्चों की सलामती की दुआ करती है। बिना किसी स्वार्थ के अपने बच्चे की खुशी में जो हर पल खुश हो वह सिर्फ मां है।
ऐसे ही किसी को बिना किसी चाहत , लालच या शर्त के प्रेम करना ही सच्चा प्रेम है।
इस भौतिक संसार में वह राह जो हमारी अंतर आत्मा को अलौकिक शांति और खुशी दे वो एक मात्र श्री कृष्ण को बिना किसी स्वार्थ और इच्छा के प्रेम करना और स्वंय को उनकी सेवा में समर्पित करना ही है।
जो इस संसार में बहुत कम ही देखने को मिलता है इसलिए इस धरती पर वृंदावन की भूमि को और उसमें भी वहां रहने वाली गोपियों को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
श्री चैतन्य महाप्रभु जी कहते हैं कि जितने भी लोग इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जगदीश्वर श्रीकृष्ण की भक्ति और प्रेम पूर्ण स्तुति करते हैं उनमें इन वृंदावन की अनपढ़- गंवार गोपियों की प्रेम पूर्ण भक्ति सबसे उत्कृष्ट है। इन गोपियों ने बिना किसी वेदों -उपनिषदों के ज्ञान के बड़े-बड़े ऋषि -मुनियों को भी दुर्लभ अलौकिक कृष्ण प्रेम को सिर्फ अपने निस्वार्थ प्रेम से सरल ही प्राप्त कर लिया है।
हमारे पुराणों में गोपियों के अटूट प्रेम की अंतहीनता को संसारिक लोगों को सरलता से समझाने के लिए एक कथा का उल्लेख मिलता है कि एक बार श्री कृष्ण के सिर में असहनीय दर्द होने लगा तो उन्होंने देवर्षि श्री नारद जी को कहा कि मेरे अनन्य भक्तों के कमल चरणों की धूल लाकर अगर आप मेरे मस्तक पर लगाएंगे तो मेरा ये असहनीय दर्द पल में दूर हो जाएगा।
तब नारद जी सभी ब्रह्मा , इंद्र आदि देवी-देवताओं और यहां तक शिव जी के पास भी श्री कृष्ण की इस पीड़ा का निवारण करने के लिए उनके श्री चरणों की रज लेने गए परन्तु सभी ने नारद जी को अपने चरणों की धूलि देने से इंकार कर दिया यह बोलकर की जगत अधिपति ,जगदीश्वर श्री कृष्ण हमारे आराध्य हैं और परम पूज्यनीय हैं हम उनके श्री मस्तक पर अपने चरणों की धूल कैसे लगवा सकते हैं, हमें तो घोर नरक में भी जगह नहीं मिलेगी , ये अक्षम्य अपराध हमसे नहीं होगा ।
तब थककर नारद जी वृंदावन की गोपियों के पास अपनी व्यधा लेकर गये और जैसे ही गोपियों ने सुना कि उनके कान्हां के सिर में दर्द है और उसको ठीक करने का एकमात्र उपाय ये है उन्होंने उसी क्षण अपने पैरों को खुरचना शुरू कर दिया और सब धूल-मिट्टी नारद जी को सहर्ष दे दी।
नारद जी ने सोचा कि कहीं ये सीधी-सादी गोपियां प्रेम वशिभूत होकर ये ना भूल गई हो कि इनका कान्हा कोई साधारण इंसान नहीं त्रिभुवन स्वामी, त्रिलोक पति जगदीश्वर श्री हरि विष्णु है इसलिए उन्हें आगाह भी किया कि एक बार सोच लो गोपियों अपने चरणों की धूल श्री हरि विष्णु के मस्तक पर लगाना एक अक्षम्य अपराध है इसके लिए तुम्हें घोर नरक की प्राप्ति भी हो सकती है।
तब गोपियां मुस्कुरा कर बोलीं नारद जी आप क्या जानों हमारे प्रेम को अगर हमारे ऐसा करने से कान्हा को एक क्षण के लिए भी सूकुन मिले तो हम नरक की सभी यातनाओं को हंसते-हंसते सह लें। इससे अधिक सौभाग्य की बात क्या होगी कि हम अपने कान्हा के कुछ काम आएं। ये सुन सकल वेदों के ज्ञाता देवमुनि नारद जी उन गोपियों के चरणों में नतमस्तक हो गए ।
यही है अलौकिक प्रेम जिससे हम प्यार करें उसकी खुशी में ही हमारी खुशी हो फिर वो चाहे हमें प्यार करें या ना करें।
मारो या राखों कान्हा जो इच्छा तोहार,
हे व्रज नंदन मैं नित्य दास तोहार ।
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