बचपन की गलतियां पेंसिल की लिखी थी,
हर रोज़ एक कोरा कागज़,
हर रोज़ एक नई कहानी,
उम्र के साथ साथ, स्याही गाढ़ी होती गई,
देखते ही देखते हाथों में कलम आ गई,
कागज़ तो एक ही है,
हर नई कहानी, पुरानी के ऊपर ही लिख दी जाती है,
वक़्त और तजुर्बे के साथ ये कहानियां उलझती जाती हैं,
कभी अचानक किसी भूली, बिसरी कहानी का हिस्सा,
साफ़ दिखने लगता है,
तो कभी पुराने शब्दों में उलझा,
कोई नया, सही अक्षर भी गलत दिखाई पड़ता है,
फिर कभी कोई कहानी इतनी गाढ़ी स्याही से लिख डालते है,
की पिछला सब गायब सा हो जाता है,
या शायद बस कुछ देर के लिए दिखाई नहीं देता,
फिर जब कुछ और वक़्त के साथ
वो कहानी भी धुंदली पड़ने लगती है,
तो जी घबराता है,
और फिर समझ आता है,
की ये स्याही हलकी भी हो सकती है,
हर कहानी तो इतना गाढ़ा लिख डालना ज़रूरी नहीं,
वक़्त के साथ स्याही यूँ ही गाढ़ी नहीं हुई थी,
हमारी मर्ज़ी से हुई थी,
हम चाहें तो फिर से पेंसिल उठा लें...
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